पिपरिया के पत्रकारों से मन की बात :- गोपाल राठी की कलम
हर मुद्दे के दो पक्ष होते है । एक जनता का पक्ष होता है और एक सरकार का पक्ष होता है ।
विवाद की स्थिति में एक सच्चे पत्रकार का दायित्व है वह तटस्थ रहकर दोनों पक्षो के विचारों और तर्क पर गौर करे । जनता के पक्ष को संवेदनशील होकर समझने की कोशिश करे । फिर अपनी कलम से संतुलित और निष्पक्ष रिपोर्टिग करे । सरकार अपना पक्ष प्रेस विज्ञप्ति प्रेस कांफ्रेंस और विज्ञापन के माध्यम से रखती है इसलिए जनता के पक्ष को वरीयता देने की अपेक्षा की जाती है । देश के मूर्धन्य पत्रकार यही करते रहे है । अगर पत्रकार ही एक पक्ष बन जाता है तो पत्रकार और दलाल में फर्क करना मुश्किल हो जाता है ।
पिपरिया की पत्रकारिता देखकर बड़ा आश्चर्य होता है । कुछ पत्रकार कहने के लिए पत्रकार है लेकिन उनका आचार विचार और व्यवहार एक पार्टी प्रवक्ता की तरह देखने मे आ रहा है । सड़क पर पेड़ कटाई के पक्ष में अभी तक किसी भाजपा नेता या पदाधिकारी ने बयान नही दिया है लेकिन कतिपय पत्रकार विकास के लिए पेड़ काटना ज़रूरी बता रहे है । और सोशल मीडिया में पेड़ कटाई का विरोध करने वालों को खलनायक बता रहे है । क्या यह पत्रकारिता है ? एक हाथ मे कलम और दूसरे हाथ मे कमल थाम कर पत्रकारिता नहीं चाटुकारिता चल रही है । हद तो जब हो गई जब एक पत्रकार ने पेड़ काटने का विरोध करने वाले गिने चुने लोगों को चुनौती देते हुए पूछा है कि ये पर्यावरण वादी जब कहाँ थे तब पचमढ़ी में 250 पेड़ काटे गए थे । उन पत्रकार महोदय को इतना मालूम होना चाहिए कि वे पेड़ किसी योजना के तहत नहीं काटे गए थे । उन पेड़ो की कटाई चोरी छिपे की गई थी जिनका पता पेड़ कटने के बाद चला था । अब यह सवाल सरकार से पूछना चाहिए कि उन पेड़ो की कटाई के लिए कौन जिम्मेदार था ? उन पर क्या कार्यवाही की गई ? सरकार से सवाल पूछने की और सरकार को घेरने की हिम्मत नहीं है । लेकिन विशुद्ध भावना से पेड़ कटाई का सोशल मीडिया पर शान्तिपूर्ण और लोकतांत्रिक ढंग से विरोध करने वालो पर
निशाना साधना पुरुषार्थ नहीं नपुंसकता है ।
पेड़ कटाई शुरू होने के एक सप्ताह बाद तक नगर के लोगों को यह नहीं मालूम था कि पेड़ क्यों काटे जा रहे है ? 17 मार्च को दैनिक भास्कर में छपी खबर के द्वारा पहली बार सीएमओ और उपयंत्री के मार्फ़त यह जानकारी मिली कि मंगलवारा चौराहे से हथवान्स तिगड्डे तक कुल 860 मीटर की सड़क बनाई जा रही है जिसकी चौड़ाई 12 मीटर होगी । इसके पहले नगरपालिका कार्यालय ने न कोई सूचना दी और न विज्ञप्ति जारी की । पत्रकारों को नगर पालिका से यह सवाल पूछना चाहिए कि नगर के भूगोल को बदलने वाले इतने बड़े मुद्दे पर पत्रकारों और जनता को अवगत क्यों नहीं कराया गया ? पेड काटने का प्रस्ताव नगरपालिका की किस मीटिंग में पास हुआ उसका डिटेल भी मांगा जा सकता था कि कौन पार्षद इसके पक्ष में थे और कौन इसके विरोध में थे । पत्रकार महोदय सवाल सरकार से पूछे जाते है , विपक्ष या आम जनता से नहीं । राष्ट्रीय स्तर से लेकर स्थानीय स्तर तक पत्रकारों में यह प्रवृत्ति बढ़ रही है के वे सरकार के खिलाफ बोलने वाले या मैदान में आंदोलन करने वालों को खलनायक बनाने में जुटे है । यह किसान आंदोलन में साफ साफ दिखाई दिया था जब किसानों के मुद्दे के बजाय पत्रकार किसान आंदोलन को खलिस्तानी सिद्ध करने में जुटा हुआ था । अंततः इन्ही किसानों के दबाव में सरकार को किसान बिल वापिस लेने पड़े । सरकार के यू टर्न को क्या सरकार की हार या खलिस्तानियों की जीत कहा जाएगा ? जबकि वस्तुस्थिति यह है कि किसानों की एकता और आंदोलन के आगे अंततः सरकार को झुकना पड़ा ।
पिपरिया और उसके आसपास पत्रकारिता कर रहे युवा मित्रो से निवेदन है कि वे किसी नेता , पार्टी या रंगदार का टूल्स बनने के बजाय अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए । आपका प्रयास होना चाहिए कि नगर आपको एक दलाल के रूप में नहीं बल्कि एक पत्रकार के रूप में जाने ।
विवाद की स्थिति में एक पक्ष बन जाना पत्रकारिता नहीं चाटुकारिता है । यह हमेशा ध्यान रखे कि हम सब पिपरिया के रहने वाले है एक दूसरे के आचार व्यवहार और फितरत से भली भाँति परिचित है । किसी के बारे में लिखे और बोले तो पूरी जिम्मेदारी से लिखें । तटस्थ रहकर संतुलित और जनसरोकार की पत्रकारिता कर रहे नगर के पत्रकार बंधुओ को सलाम । यह टिप्पणी सिर्फ उन पत्रकारों के लिए है जो अतिउत्साह में तथाकथित विकास की पैरवी कर रहे हैं ।
उल्लेखनीय है कि सरकार की नीति नियत और व्यवस्था का विरोध करने वाले देश मे ही नही क्षेत्र में गिनेचुने लोग है । सब अपने अपने गुणा भाग सेटिंग और डर के कारण चुप रहते है । सत्ता के विरोध का जोखिम कोई नहीं उठाना चाहता ( विपक्षी दल और नेता भी नहीं ) । सत्ता के खिलाफ उठने वाली इक्का दुक्का आवाज़ें भी अगर खामोश हो गई तो सब जगह सिर्फ सन्नाटा ही सन्नाटा होगा । सिर्फ सत्ता होगी और उनका कीर्तन करने वाले भक्त होंगे । अगर ऐसा हुआ तो यह लोकतंत्र का आखिरी क्षण होगा ।